Friday 16 November 2012

तेनालीराम की कहानी


एक बार राज दरबार में नीलकेतु नाम ा यात्री राजा कॄष्णदेव राय से मिलने आया। पहरेदारों ने राजा को उसके आने की सूचना दी। राजा ने नीलकेतु को मिलने की अनुमति दे दी।

यात्री एकदम दुबला-पतला था। वह राजा के सामने आया और बोला- महाराज, मैं नीलदेश का नीलकेतु हूं और इस समय मैं विश्व भ्रमण की यात्रा पर निकला हूं। सभी जगहों का भ्रमण करने के पश्चात आपके दरबार में पहुंचा हूं।

राजा ने उसका स्वागत करते हुए उसे शाही अतिथि घोषित किया। राजा से मिले सम्‍मान से खुश होकर वह बोला- महाराज! उस जगह को जानता हूं, जहां पर खूब सुंदर-सुंदर परियां रहती हैं। मैं अपनी जादुई शक्ति से उन्हें यहां बुला सकता हूं। नीलकेतु की बात सुन राजा खुश होकर बोले - इसके लिए मुझे क्‍या करना चाहिए?

उसने राजा कृष्‍णदेव को रा‍त्रि में तालाब के पास आने के लिए कहा और बोला कि उस जगह मैं परियों को नृत्‍य के लिए बुला भी सकता हूं। नीलकेतु की बात मान कर राजा रात्रि में घोड़े पर बैठकर तालाब की ओर निकल गए।

तालाब के किनारे पहुंचने पर पुराने किले के पास नीलकेतु ने राजा कृष्‍णदेव का स्‍वागत किया और बोला- महाराज! मैंने सारी व्‍यवस्‍था कर दी है। वह सब परियां किले के अंदर हैं।

राजा अपने घोड़े से उतर नीलकेतु के साथ अंदर जाने लगे। उसी समय राजा को शोर सुनाई दिया। देखा तो राजा की सेना ने नीलकेतु को पकड़ कर बांध दिया था। 

यह सब देख राजा ने पूछा- यह क्‍या हो रहा है? 

तभी किले के अंदर से तेनालीराम बाहर निकलते हुए बोले - महाराज! मैं आपको बताता हूं? 

तेनालीराम ने राजा को बताया - यह नीलकेतु एक रक्षा मंत्री है और महाराज...., किले के अंदर कुछ भी नहीं है। यह नीलकेतु तो आपको जान से मारने की तैयारी कर रहा है। 

राजा ने तेनालीराम को अपनी रक्षा के लिए धन्यवाद दिया और कहा- तेनालीराम यह बताओं, तुम्हें यह सब पता कैसे चला?

तेनालीराम ने राजा को सच्‍चाई बताते हुए कहा - महाराज आपके दरबार में जब नीलकेतु आया था, तभी मैं समझ गया था। फिर मैंने अपने साथियों से इसका पीछा करने को कहा था, जहां पर नीलकेतु आपको मारने की योजना बना रहा था। तेनालीराम की समझदारी पर राजा कृष्‍णदेव ने खुश होकर उन्हें धन्‍यवाद दिया।

बेईमानी का फल


नंदनवन में एक दम सन्‍नाटा और उदासी छाई हुई थी। इस वन को किसी अज्ञात बीमारी ने घेर लिया था। वन के सभी जानवर इससे परेशान हो गए थे। इस बीमारी ने लगभग सभी जानवर को अपनी चपेट में ले लिया था। 

एक दिन वन का राजा शेरसिंह ने एक बैठक बुलाई। उस बैठक में वन के सभी जानवरों ने हिस्‍सा लिया। राजा शेरसिंह एक बड़े से पत्थर पर बैठ गया और जंगलवासियों को संबोधित करने लगा। शेरसिंह ने सभी जंगलवासियों को सुझाव दिया कि हमें इस बीमारी से बचने के लिए एक अस्‍पताल खोलना चाहिए। ताकि बीमार जानवरों का इलाज किया जा सके। 

इतने में हाथी ने पूछा, अस्‍पताल के लिए पैसा कहां से लाएंगे और इसमें तो डॉक्‍टरों की जरूरत भी पड़ेगी? तभी शेरसिंह ने कहा, पैसा हम सब मिलकर इकटठा करेंगे। 

शेरसिंह की बात सुन टींकू बंदर खड़ा हो गया और बोला, महाराज! राजवन के अस्‍पताल में मेरे दो दोस्‍त डॉक्‍टर हैं, मैं उन्‍हें अपने अस्‍पताल में बुला लूगां। टींकू की बात से वन की सभी सदस्‍य खुश हो गए। दूसरे दिन से ही चीनी बिल्‍ली और सोनू सियार ने अस्‍पताल के लिए पैसा इकटठा करना शुरू किया। 

सभी जंगलवासियों की मेहनत सफल हुई और जल्द ही वन में अस्पताल बन गया और चलने लगा। टींकू बंदर के दोनों डॉक्टर अस्पताल में आने वाले मरीजों का इलाज करते और मरीज भी ठीक होकर डॉक्टरों को दुआएं देते हुए जाते। 

कुछ महीनों तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा। परंतु कुछ समय के बाद टीपू खरगोश के मन में लालच आ गया। टीपू ने बंटी खरगोश को बुलाया और कहा यदि हम अस्‍पताल की दवाइयां पास वाले जंगल में बेच देते हैं। जिससे हम दोनों खूब कमाई कर सकते हैं। लेकिन बंटी खरगोश ईमानदार था, उसे टीपू की बात पसंद नहीं आई। बंटी ने उसे सुझाव भी दिया, लेकिन टीपू को तो लालच का भूत सवार था।

टीपू ने कुछ समय तक ईमानदारी से काम करने का नाटक किया। परंतु धीरे-धीरे उसकी बेईमानी बढ़ती जा रही थी। वह अब नंदनवन के मरीजों को कम और दूसरे वन के मरीजों का ज्‍यादा देखता था। 

एक दिन टीपू की शिकायत लेकर सभी जानवर राजा शेरसिंह के पास गए। शेरसिंह ने सभी की बात ध्‍यान से सुनी और कहा कि जब तक मैं अपनी आंखों से नहीं देखूंगा, तब तक कोई फैसला नहीं लूंगा। शेरसिंह ने जांच का पूरा काम चालाक लोमड़ी का सौंपा। 

दूसरे दिन से ही चालाक लोमड़ी टीपू पर नजर रखने लगी। टीपू लोमड़ी को नहीं जानता था। कुछ दिनों तक लोमड़ी ने नजर रखने के बाद उसे रंगे हाथों पकड़ने की योजना बनाई। लोमड़ी ने इस बात की जानकारी शेरसिंह को दी, ताकि शेरसिंह अपनी आंखों से टीपू को पकड़ सके। 

लोमड़ी डॉक्‍टर टीपू के कमरे में गई और बोली, मैं पास वाले जंगल से आई हूं। वहां के राजा की तबीयत काफी खराब है। यदि आपकी दवाई से वह ठीक हो गए तो आपको मालामाल कर देंगे। टीपू को लोमड़ी की बात सुन लालच आ गया। उसने लोमड़ी के साथ अपना सारा सामान उठाया और वन की तरफ निकल गया। 

टीपू और लोमड़ी की बात चुपके से राजा शेरसिंह सुन रहे थे। शेरसिंह टीपू से पहले पास वाले जंगल में पहुंच कर लेट गए। वहां पर जैसे ही टीपू खरगोश और लोमड़ी पहुंचे शेरसिंह को देखकर डर गए। टीपू डर के मारे कांपने लगा। क्‍योंकि उसकी लालच का भेद खुल चुका था। टीपू रोते हुए शेरसिंह से माफी मांगने लगा। 

राजा शेरसिंह ने गुस्‍से में आदेश सुनाया और कहा कि टीपू की सारी रकम अस्‍पताल में मिला ली जाए और उसे जंगल से मारकर निकाला जाए। शेरसिंह की बात सुन सभी जानवरों ने सोचा कि ईमानदारी में ही जीत है और बेईमानी करने वाले टीपू को अपनी लालच का फल भी मिल गया।

लालच से दूर रहो



बहुत पुरानी बात है। कंचनपुर के एक धनी व्यापारी के रसोईघर में एक कबूतर ने घोंसला बनाया हुआ था। एक दिन एक लालची कौआ उधर आ निकला। वहां मछली को देखकर उसके मुंह में पानी भर आया। तब उसने सोचा, मुझे इस रसोईघर में घुसना चाहिए, पर कैसे?

तभी उसकी निगाह कबूतर पर जा पड़ी। उसने सोचा कि यदि मैं कबूतर से दोस्ती कर लूं तो शायद बात बन जाए।

कबूतर जब दाना चुगने बाहर निकला तो कौआ उसके साथ लग गया। थोड़ी ही देर में कबूतर ने जब पीछे मुड़कर देखा तो अपने पीछे कौए को पाया।
उसने पूछा- तुम मेरे पीछे क्यों लगे हो?

कौए ने मीठे स्वर में कहा- तुम मुझे अच्छे लगते हो। इसलिए तुमसे दोस्ती करना चाहता हूं। 

कबूतर ने कहा - बात तो तुम ठीक कह रहे हो, मगर हमारा-तुम्हारा भोजन अलग-अलग है। मैं बीज खाता हूं और तुम कीड़े।




कौने ने चापलूसी करते हुए कहा- कोई बात नहीं, हम इकट्ठे रह लेंगे। 
शाम को दोनों पेट भरकर वापस आ गए।

व्यापारी ने कबूतर के साथ कौए को भी देखा तो सोचा कि शायद उसका मित्र होगा।

एक दिन व्यापारी ने रसोइए से कहा, आज कुछ मेहमान आ रहे हैं। उनके लिए स्वादिष्ट मछलियां बनाना।
कौआ यह सब सुन रहा था।
रसोइए ने स्वादिष्ट मछलियां बनाईं।

तभी कबूतर कौए से बोला- चलो हम भोजन करने बाहर चलते हैं।
मक्कार कौए ने कहा- आज मेरा पेट दर्द कर रहा है, तुम अकेले ही चले जाओ।
कबूतर भोजन की तलाश में बाहर निकल गया।
उधर कौआ रसोइए बाहर निकलने का इंतजार कर रहा था। जैसे ही रसोइया बाहर निकला, कौआ तुरंत थाली की ओर झपटा और मछली का टुकड़ा मुंह में भरकर घोंसले में जा बैठा और खाने लगा।

रसोइए को जब रसोई में खटपट की आवाज सुनाई दी तो वह वापस रसोई की ओर लपका। उसने देखा कौआ घोंसले में बैठा मछली का टुकड़ा मजे से खा रहा है। 

रसोइए को बहुत गुस्सा आया और उसने कौए की गरदन पकड़ कर मरोड़ दी। शाम को जब कबूतर दाना चुगकर आया तो उसने कौए का हश्र देखा। 

जब उसने घोंसले में मछली का अधखाया टुकड़ा पड़ा देखा तो उसकी समझ में आ गया कि उसने जरूर लालच किया होगा तभी उसकी यह हालत हुई है
कहानी की सीख 
दुष्ट प्रकृति के प्राणी को उसकी दुष्टता का फल अवश्य मिलता है। कबूतर से मित्रता की आड़ में कौआ अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता था। वह नहीं जानता था कि लालच के वशीभूत होकर प्राणों को संकट में डालने वाले से बड़ा मूर्ख और कोई नहीं होता।

मकडू भेड़िया और गबरू शेर



एक वन में गबरू नामक तेजतर्रार शेर रहता था। सियार पंजू और भेड़िया मकडू उसके आज्ञाकारी सेवक थे। दुर्भाग्यवश एक दिन शेर ने एक ऊंटनी का शिकार किया। जो गर्भवती थी। शेर ने जैसे ही उसका पेट फाड़ा, पेट फटते ही उसका बच्चा बाहर निकल आया। 

बच्चे को देखकर गबरू शेर का दिल भर आया। उसके मन में ऊंटनी के बच्चे के प्रति स्नेह, प्यार-दुलार उत्पन्न हुआ तो वह बच्चे को अपने घर ले आया और उसका नाम शंकु रख उसका पालन-पोषण करने लगा। समय जैसे-जैसे बीतता गया वैसे  गुजरते वक्त के साथ-साथ ऊंटनी का बच्चा हष्टपुष्‍ट जवान हो गया।
WD

फिर एक दिन शाम के वक्त संयोगवश शेर का हाथी से सामना हो गया। गुर्राए हाथी ने अपने दांतों से प्रहार कर शेर को इतना घायल कर दिया कि वह उठने-बैठने, यहां तक कि चलने-फिरने और शिकार करने में भी असमर्थ हो गया। 

इस तरह कई दिन बीत गए। भूख से व्याकुल शेर ने एक दिन अपने सेवकों से कहा - मेरे प्यारे साथियों..., वन में जाकर किसी ऐसे पशु को खोज लाओ, जिसका शिकार मैं इस असहाय अवस्था में भी कर सकूं।

अपने स्वामी की आज्ञा का पालन करते हुए सेवक वन के एक कोने से दूसरे कोने तक भटकते रहे, परंतु उन्हें ऐसा कोई पशु नहीं मिला, जिसका शेर बैठे-बैठे ही शिकार कर सके। 

सेवक निराश होकर लौटे, और अपनी असफलता की कहानी शेर को सुनाई।

दूसरे दिन मकडू ने पंजू से कहा - अगर इस प्रकार भूखे रहें, तो एक दिन हम सभी मर जाएंगे।

मेरे दिमाग में एक योजना है, अगर हमारे स्वामी शेर उसे कार्यरूप देने को तैयार हो जाए तो...। उसने आगे कहा - यदि शंकु का वध कर दिया जाए, तो कुछ दिनों के भोजन की व्यवस्था हो सकती है।

अपने साथी की योजना का समर्थन करते हुए पंजू ने कहा - तुम ठीक कहते हो मकडू भाई, इसके सिवा हमारे पास कोई और चारा भी तो नहीं है। तब तक शायद हमारे स्वामी भी पुन: स्वस्थ होकर शिकार करने लग जाए। 

लेकिन...। इतना कह कर मकडू के चेहरे पर गंभीरता छा गई।
पंजू बोला - लेकिन क्या? आपका सुझाव तो उत्तम 
है...। 
मकडू ने निराश स्वर में कहा - यहां स्थिति तो हमारे अनुकूल दिखाई दे रही है, मगर शेर ने शंकु का वध करने से इनकार कर दिया तो...। 
पंजू बोला - इस बात को तो मैं भी अच्छी प्रकार समझता हूं, लेकिन परिस्थिति भूखे-प्यासे को सबकुछ करने पर विवश कर देती है। 
शिक्षा
इस कहानी से यह सीख मिलती है कि हमारे साथ रह रहे दोस्तों पर आंख बंद करके भरोसा कभी भी ना करें।
इस प्रकार सोच-विचार करने के बाद दोनों शेर के पास गए और बोले - राजन...! यदि आपको अपने प्राण प्यारे है तो शंकु के वध का प्रस्ताव स्वीकार कर लीजिए, वर्ना भूखे-प्यासे रहने के कारण आप और हम दोनों भी यमलोक का प्रस्थान कर जाएंगे।

शेर ने बेहद धीमे स्वर में कहा - यदि शंकु स्वेच्छा से आत्मसमर्पण करने को तैयार होता है तो मैं उसके वध के प्रस्ताव पर विचार कर सकता हूं। अगर वह ऐसा नहीं करना चाहेगा तो मैं भूख से तड़प-तड़पकर मर जाऊंगा, लेकिन उसका वध नहीं करूंगा।

WD

शेर की अनुमति मिलते ही दोनों के चेहरे पर लालच भरी मुस्कान दौड़ गई। वे शंकु के पास गए और चिंतित मुद्रा में कहने लगे - देखो मित्र! हमारे स्वामी कई दिनों से भोजन न मिलने के कारण इतने असमर्थ हो गए है कि वह उठ-बैठ भी नहीं सकते। हम स्वामी के हित की सोच कर ही तुम्हें आत्मसमर्पण के लिए कह रहे हैं। 

शंकु ने सहज भाव से उत्तर दिया - बंधु! अगर स्वामी के लिए मैं कुछ भी कर सका तो मैं अपने आपको भाग्यशाली समझूंगा। 
मकडू ने पुन: कहा - इस समय स्वामी के प्राणों पर संकट आ पड़ा है। तुम अपने शरीर को समर्पित करके स्वामी के प्राणों की रक्षा कर सकते हो। 
शंकु ने गर्दन हिलाते हुए अपनी स्वीकृति दी और कहा - मैं हर प्रकार से तैयार हूं। फिर दोनों शंकु को शेर के पास ले गए।

शेर के पास पहुंच कर शंकु ने अपने निवेदन में कहा - स्वामी! मैं अपने धर्म का पालन करने के लिए तैयार हूं। यह जीवन आपका ही दिया हुआ है। आप मेरे प्राण को लेकर अपनी और अपने सेवकों के प्राणों की रक्षा करें।

शंकु की स्वीकृति मिलते ही दोनों ने उस ऊंट को फाड़ डाला। शंकु के वध के बाद शेर ने मकडू से कहा- मैं नदी में स्नान करके आता हूं, तब तक तुम इस मांस की देखभाल करना। 

शेर के जाते ही मकडू सोच में पड़ गया, कि कोई ऐसी युक्ति निकाली जाए, जिससे सारा मांस मुझे अकेले को ही मिल जाए। 

WD
उसने कुछ देर सोचने के बाद अपने साथी पंजू से बोला- मित्र, तुम तो बहुत ज्यादा भूख से पीड़ित नजर आ रहे हो इसलिए जब तक स्वामी लौट कर नहीं आते, तुम इस बढ़िया मांस का आनंद प्राप्त कर लो। स्वामी के आने पर मैं उनसे निपट लूंगा।

भूखे पंजू ने जैसे ही मांस खाने के लिए मुंह खोला मकडू उस पर टूट पड़ा और उसे भी फाड़ डाला। फिर मकडू दोनों के मांस को लेकर वन में दूसरी ओर चला गया। शेर ने आकर दोनों को ढूंढा मगर कोई भी नहीं मिला। शेर को अपने ‍किए पर काफी पछतावा हुआ और दुखी मन से उसने अपने प्राण त्याग दिए।

अच्छे काम का पुरस्कार


एक बूढ़ा रास्ते से कठिनता से चला जा रहा था। उस समय हवा बड़े जोरों से चल रही थी। अचानक उस बूढ़े की टोपी हवा से उड़ गई। 

उसके पास होकर दो लड़के स्कूल जा रहे थे। उनसे बूढ़े ने कहा- मेरी टोपी उड़ गई है, उसे पकड़ो। नहीं तो मैं बिना टोपी का हो जाऊंगा। 

वे लड़के उसकी बात पर ध्यान न देकर टोपी के उड़ने का मजा लेते हुए हंसने लगे। इतने में लीला नाम की एक लड़की, जो स्कूल में पढ़ती थी, उसी रास्ते पर आ पहुंची। 

उसने तुरंत ही दौड़कर वह टोपी पकड़ ली और अपने कपड़े से धूल झाड़कर तथा पोंछकर उस बूढ़े को दे दी। उसके बाद वे सब लड़के स्कूल चले गए। 

गुरुजी ने टोपी वाली यह घटना स्कूल की खिड़की से देखी थी। इसलिए पढ़ाई के बाद उन्होंने सब विद्यार्थियों के सामने वह टोपी वाली बात कही और लीला के काम की प्रशंसा की तथा उन दोनों लड़कों के व्यवहार पर उन्हें बहुत धिक्कारा।

शिक्षा
यह कहानी हमें शिक्षा देती है कि हमें कभी भी किसी का मजाक नहीं उड़ाना चाहिए। साथ ही हमें हर जरूरतमंद व्यक्ति की हमेशा मदद करनी चाहिए चाहे वो छोटा हो या बड़ा।
इसके बाद गुरुजी ने अपने पास से एक सुंदर चित्रों की पुस्तक उस छोटी लड़की को भेंट दी और उस पर इस प्रकार लिख दिया- लीला बहन को उसके अच्छे काम के लिए गुरुजी की ओर से यह पुस्तक भेंट की गई है।

जो लड़के गरीब की टोपी उड़ती देखकर हंसे थे, वे इस घटना का देखकर बहुत लज्जित और दुखी हुए।

अकल की दुकान

एक था रौनक। जैसा नाम वैसा रूप। अकल में भी उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता था। एक दिन उसने घर के बाहर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा- 'यहां अकल बिकती है।'

उसका घर बीच बाजार में था। हर आने-जाने वाला वहां से जरूर गुजरता था। हर कोई बोर्ड देखता, हंसना और आगे बढ़ जाता। रौनक को विश्वास था कि उसकी दुकान एक दिन जरूर चलेगी।

एक दिन एक अमीर महाजन का बेटा वहां से गुजरा। दुकान देखकर उससे रहा नहीं गया। उसने अंदर जाकर रौनक से पूछा- 'यहां कैसी अकल मिलती है और उसकी कीमत क्या है? '

उसने कहा- 'यह इस बात पर निर्भर करता है कि तुम इस पर कितना पैसा खर्च कर सकते हो।'

गंपू ने जेब से एक रुपया निकालकर पूछा- 'इस रुपए के बदले कौन-सी अकल मिलेगी और कितनी?'

'भई, एक रुपए की अकल से तुम एक लाख रुपया बचा सकते हो।'

गंपू ने एक रुपया दे दिया। बदले में रौनक ने एक कागज पर लिखकर दिया- 'जहां दो आदमी लड़-झगड़ रहे हों, वहां खड़े रहना बेवकूफी है।'

गंपू घर पहुंचा और उसने अपने पिता को कागज दिखाया। कंजूस पिता ने कागज पढ़ा तो वह गुस्से से आगबबूला हो गया। गंपू को कोसते हुए वह पहुंचा अकल की दुकान। कागज की पर्ची रौनक के सामने फेंकते हुए चिल्लाया- 'वह रुपया लौटा दो, जो मेरे बेटे ने तुम्हें दिया था।'

रौनक ने कहा- 'ठीक है, लौटा देता हूं। लेकिन शर्त यह है कि तुम्हारा बेटा मेरी सलाह पर कभी अमल नहीं करेगा।'

कंजूस महाजन के वादा करने पर रौनक ने रुपया वापस कर दिया।

उस नगर के राजा की दो रानियां थीं। एक दिन राजा अपनी रानियों के साथ जौहरी बाजार से गुजरा। दोनों रानियों को हीरों का एक हार पसंद आ गया। दोनों ने सोचा- 'महल पहुंचकर अपनी दासी को भेजकर हार मंगवा लेंगी।' संयोग से दोनों दा‍सियां एक ही समय पर हार लेने पहुंचीं। बड़ी रानी की दासी बोली- 'मैं बड़ी रानी की सेवा करती हूं इसलिए हार मैं लेकर जाऊंगी'

दूसरी बोली- 'पर राजा तो छोटी रानी को ज्यादा प्यार करते हैं, इसलिए हार पर मेरा हक है।'

गंपू उसी दुकान के पास खड़ा था। उसने दासियों को लड़ते हुए देखा। दोनों दासियों ने कहा- 'वे अपनी रानियों से शिकायत करेंगी।' जब बिना फैसले के वे दोनों जा रही थीं तब उन्होंने गंपू को देखा। वे बोलीं- यहां जो कुछ हुआ तुम उसके गवाह रहना।'

दासियों ने रानी से और रानियों ने राजा से शिकायत की। राजा ने दासियों की खबर ली। दासियों ने कहा- 'गंपू से पूछ लो वह वहीं पर मौजूद था।'

राजा ने कहा- 'बुलाओ गंपू को गवाही के लिए, कल ही झगड़े का निपटारा होगा।'

इधर गंपू हैरान, पिता परेशान। ‍आखिर दोनों पहुंचे अकल की दुकान। माफी मांगी और मदद भी।

रौनक ने कहा- 'मदद तो मैं कर दूं पर अब जो मैं अकल दूंगा, उसकी ‍कीमत है पांच हजार रुपए।

मरता क्या न करता? कंजूस पिता के कुढ़ते हुए दिए पांच हजार। रौनक ने अकल दी कि गवाही के समय गंपू पागलपन का नाटक करें और दासियों के विरुद्ध कुछ न कहे।

अगले दिन गंपू पहुंचा दरबार में। करने लगा पागलों जैसी हरकतें। राजा ने उसे वापस भेज दिया और कहा- 'पागल की गवाही पर भरोसा नहीं कर सकते।'

गवाही के अभाव में राजा ने आदेश दिया- 'दोनों रानी अपनी दासियों को सजा दें, क्योंकि यह पता लगाना बहुत ही मुश्किल है कि झगड़ा किसने शुरू किया।'

बड़ी रानी तो बड़ी खुश हुई। छोटी को बहुत गुस्सा आया।

गंपू को पता चला कि छोटी रानी उससे नाराज हैं तो वह फिर अपनी सुरक्षा के लिए परेशान हो गया। फिर पहुंचा अकल की दुकान। 

रौनक ने कहा- 'इस बार अकल की कीमत दस हजार रुपए।'

पैसे लेकर रौनक बोला- 'एक ही रास्ता है, तुम वह हार खरीद कर छोटी रानी को उपहार में दे दो।'

गंपू सकते में आ गया। बोला- 'अरे ऐसा कैसे हो सकता है? उसकी कीमत तो एक लाख रुपए है।'

रौनक बोला- 'कहा था ना उस दिन जब तुम पहली बार आए थे कि एक रुपए की अकल से तुम एक लाख रुपए बचा सकते हो।'

इधर गंपू को हार खरीद कर भेंट करना पड़ा, उधर अकल की दुकान चल निकली। कंजूस महाजन सिर पीटकर रह गया।

अपना दीपक बनो

दो यात्री धर्मशाला में ठहरे हुए थे। एक दीप बेचने वाला आया। एक यात्री ने दीप खरीद लिया। दूसरे ने सोचा, मैं भी इसके साथ ही चल पडूंगा, मुझे दीप खरीदने की क्या जरूरत है। 

दीप लेकर पहला यात्री रात में चल पड़ा, दूसरा भी उसके साथ लग लिया। थोड़ी दूर चलकर पहला यात्री एक ओर मुड़ गया। 

दूसरे यात्री को विपरीत दिशा में जाना था। वह वहीं रह गया। बिना उजाले के लौट भी नहीं पाया।

महात्मा बुद्ध ने कहा- भिक्षुओं! अपना दीपक बनो। अपने कार्य ही अपने दीप हैं। वही मार्ग दिखाएंगे।

गोपाल और मिट्ठू

बंदरों के तमाशे तो तुमने बहुत देखे होंगे। मदारी के इशारों पर बंदर कैसी-कैसी नकलें करता है, उसकी शरारतें भी तुमने देखी होंगी। तुमने उसे घरों से कपड़े उठाकर भागते देखा होगा। पर आज हम तुम्हें एक ऐसा हाल सुनाते हैं, जिससे मालूम होगा कि बंदर लड़कों से दोस्ती भी कर सकता है।

कुछ दिन हुए लखनऊ में एक सरकस-कंपनी आई थी। उसके पास शेर, भालू, चीता और कई तरह के और भी जानवर थे। इनके सिवा एक बंदर मिट्‍ठू भी था। लड़कों के झुंड-के-झुंड रोज इन जानवरों को देखने आया करते थे। मिट्‍ठू ही उन्हें सबसे अच्‍छा लगता। उन्हीं लड़कों में गोपाल भी था। वह रोज आता और मिट्‍ठू के पास घंटों चुपचाप बैठा रहता। उसे शेर, भालू, चीते आदि से कोई प्रेम न था। वह मिट्‍ठू के लिए घर से चने, मटर, केले लाता और खिलाता। 

मिट्‍ठू भी उससे इतना हिल गया था कि बगैर उसके खिलाए कुछ न खाता। इस तरह दोनों में बड़ी दोस्ती हो गई। एक दिन गोपाल ने सुना कि सरकस-कंपनी वहां से दूर शहर जा रही है। यह सुनकर उसे बड़ा रंज हुआ। वह रोता हुआ अपनी मां के पास गया और बोला, 'अम्मा, मुझे एक अठन्नी दो, मैं जाकर मिट्‍ठू को खरीद लाऊं। वह न जाने कहां चला जाएगा। फिर मैं उसे कैसे देखूंगा? वह भी मुझे न देखेगा तो रोएगा।'

मां ने समझाया, 'बेटा, बंदर किसी को प्यार नहीं करता। वह तो बड़ा शैतान होता है। यहां आकर सबको काटेगा, मुफ्‍त में उलाहने सुनने पड़ेंगे। लेकिन लड़के पर मां के समझाने का कोई असर न हुआ। वह रोने लगा। आखिर मां ने मजबूर होकर उसे अठन्नी निकालकर दे दी। 

अठन्नी पाकर गोपाल मारे खुशी के फूल उठा। उसने अठन्नी को मिट्‍टी से मलकर खूब चमकाया, फिर मिट्‍ठू को खरीदने चला। लेकिन मिट्‍ठू वहां दिखाई न दिया। गोपाल का दिल भर आया - मिट्‍ठू कहीं भाग तो नहीं गया? मालिक को अठन्नी दिखाकर गोपाल बोला, 'अबकी बार आऊंगा तो मिट्‍ठू को तुम्हें दे दूंगा।'

गोपाल निराश होकर चला आया और मिट्ठू को इधर-उधर ढूंढने लगा। वह उसे ढूंढने में इतना मगन था कि उसे किसी बात की खबर न थी। उसे बिल्कुल न मालूम हुआ कि वह चीते के कठघरे के पास आ गया था। चीता भीतर चुपचाप लेटा था। गोपाल को कठघरे के पास देखकर उसने पंजा बाहर निकाला और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा। गोपाल तो दूसरी तरफ ताक रहा था। उसे क्या खबर थी कि चीते का तेज पंजा उसके हाथ के पास पहुंच गया है। करीब इतना था कि चीता उसका हाथ पकड़कर खींच ले कि मिट्‍ठू न मालूम कहां से आकर उसके पंजे पर कूद पड़ा और पंजे को दांतों से काटने लगा।

चीते ने दूसरा पंजा निकाला और उसे ऐसा घायल कर दिया कि वह वहीं गिर पड़ा और जोर-जोर से चीखने लगा। मिट्‍ठू की यह हालत देखकर गोपाल भी रोने लगा। दोनों का रोना सुनकर लोग दौड़ पड़े, पर देखा कि मिट्ठू बेहोश पड़ा है और गोपाल रो रहा है। मिट्‍ठी का घाव तुरंत धोया गया और मरहम लगवाया गया। थोड़ी देर में उसे होश आ गया। वह गोपाल की ओर प्यार की आंखों से देखने लगा, जैसे कह रहा हो कि अब क्यों रोते हो? मैं तो अच्छा हो गया।

कई दिन मिट्‍ठू की मरहम-पट्‍टी होती रही और आखिर वह बिल्कुल अच्छा हो गया। गोपाल अब रोज आता और उसे रोटियां खिलाता। आखिर कंपनी के चलने का दिन आया। गोपाल बहुत दुखी था। वह मिट्‍ठू के कठघरे के पास खड़ा आंसू-भरी आंख से देख रहा था कि मालिक ने आकर कहा, 'अगर मिट्ठू तुमको मिल जाए तो तुम क्या करोगे?'

गोपाल ने कहा, 'मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा, उसके साथ-साथ खेलूंगा, उसे अपनी थाली में खिलाऊंगा, और क्या।'
मालिक ने कहा, 'अच्छी बात है, मैं बिना तुमसे अठन्नी लिए ही इसे तुम्हें देता हूं। गोपाल को जैसे कोई राज मिल गया। उसने मिट्‍ठू को गोद में उठा लिया, पर मिट्‍ठू नीचे कूद पड़ा और उसके पीछे-पीछे चलने लगा। दोनों खेलते-कूदते घर पहुंच गए।
बंदरों के तमाशे तो तुमने बहुत देखे होंगे। मदारी के इशारों पर बंदर कैसी-कैसी नकलें करता है, उसकी शरारतें भी तुमने देखी होंगी। तुमने उसे घरों से कपड़े उठाकर भागते देखा होगा। पर आज हम तुम्हें एक ऐसा हाल सुनाते हैं, जिससे मालूम होगा कि बंदर लड़कों से दोस्ती भी कर सकता है।

कुछ दिन हुए लखनऊ में एक सरकस-कंपनी आई थी। उसके पास शेर, भालू, चीता और कई तरह के और भी जानवर थे। इनके सिवा एक बंदर मिट्‍ठू भी था। लड़कों के झुंड-के-झुंड रोज इन जानवरों को देखने आया करते थे। मिट्‍ठू ही उन्हें सबसे अच्‍छा लगता। उन्हीं लड़कों में गोपाल भी था। वह रोज आता और मिट्‍ठू के पास घंटों चुपचाप बैठा रहता। उसे शेर, भालू, चीते आदि से कोई प्रेम न था। वह मिट्‍ठू के लिए घर से चने, मटर, केले लाता और खिलाता। 

मिट्‍ठू भी उससे इतना हिल गया था कि बगैर उसके खिलाए कुछ न खाता। इस तरह दोनों में बड़ी दोस्ती हो गई। एक दिन गोपाल ने सुना कि सरकस-कंपनी वहां से दूर शहर जा रही है। यह सुनकर उसे बड़ा रंज हुआ। वह रोता हुआ अपनी मां के पास गया और बोला, 'अम्मा, मुझे एक अठन्नी दो, मैं जाकर मिट्‍ठू को खरीद लाऊं। वह न जाने कहां चला जाएगा। फिर मैं उसे कैसे देखूंगा? वह भी मुझे न देखेगा तो रोएगा।'

मां ने समझाया, 'बेटा, बंदर किसी को प्यार नहीं करता। वह तो बड़ा शैतान होता है। यहां आकर सबको काटेगा, मुफ्‍त में उलाहने सुनने पड़ेंगे। लेकिन लड़के पर मां के समझाने का कोई असर न हुआ। वह रोने लगा। आखिर मां ने मजबूर होकर उसे अठन्नी निकालकर दे दी। 

अठन्नी पाकर गोपाल मारे खुशी के फूल उठा। उसने अठन्नी को मिट्‍टी से मलकर खूब चमकाया, फिर मिट्‍ठू को खरीदने चला। लेकिन मिट्‍ठू वहां दिखाई न दिया। गोपाल का दिल भर आया - मिट्‍ठू कहीं भाग तो नहीं गया? मालिक को अठन्नी दिखाकर गोपाल बोला, 'अबकी बार आऊंगा तो मिट्‍ठू को तुम्हें दे दूंगा।'

गोपाल निराश होकर चला आया और मिट्ठू को इधर-उधर ढूंढने लगा। वह उसे ढूंढने में इतना मगन था कि उसे किसी बात की खबर न थी। उसे बिल्कुल न मालूम हुआ कि वह चीते के कठघरे के पास आ गया था। चीता भीतर चुपचाप लेटा था। गोपाल को कठघरे के पास देखकर उसने पंजा बाहर निकाला और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा। गोपाल तो दूसरी तरफ ताक रहा था। उसे क्या खबर थी कि चीते का तेज पंजा उसके हाथ के पास पहुंच गया है। करीब इतना था कि चीता उसका हाथ पकड़कर खींच ले कि मिट्‍ठू न मालूम कहां से आकर उसके पंजे पर कूद पड़ा और पंजे को दांतों से काटने लगा।

चीते ने दूसरा पंजा निकाला और उसे ऐसा घायल कर दिया कि वह वहीं गिर पड़ा और जोर-जोर से चीखने लगा। मिट्‍ठू की यह हालत देखकर गोपाल भी रोने लगा। दोनों का रोना सुनकर लोग दौड़ पड़े, पर देखा कि मिट्ठू बेहोश पड़ा है और गोपाल रो रहा है। मिट्‍ठी का घाव तुरंत धोया गया और मरहम लगवाया गया। थोड़ी देर में उसे होश आ गया। वह गोपाल की ओर प्यार की आंखों से देखने लगा, जैसे कह रहा हो कि अब क्यों रोते हो? मैं तो अच्छा हो गया।

कई दिन मिट्‍ठू की मरहम-पट्‍टी होती रही और आखिर वह बिल्कुल अच्छा हो गया। गोपाल अब रोज आता और उसे रोटियां खिलाता। आखिर कंपनी के चलने का दिन आया। गोपाल बहुत दुखी था। वह मिट्‍ठू के कठघरे के पास खड़ा आंसू-भरी आंख से देख रहा था कि मालिक ने आकर कहा, 'अगर मिट्ठू तुमको मिल जाए तो तुम क्या करोगे?'

गोपाल ने कहा, 'मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा, उसके साथ-साथ खेलूंगा, उसे अपनी थाली में खिलाऊंगा, और क्या।'
मालिक ने कहा, 'अच्छी बात है, मैं बिना तुमसे अठन्नी लिए ही इसे तुम्हें देता हूं। गोपाल को जैसे कोई राज मिल गया। उसने मिट्‍ठू को गोद में उठा लिया, पर मिट्‍ठू नीचे कूद पड़ा और उसके पीछे-पीछे चलने लगा। दोनों खेलते-कूदते घर पहुंच गए।

बुद्धिमानी का उपयोग

एक बार की बात है एक राजा था। उसका एक बड़ा-सा राज्य था। एक दिन उसे देश घूमने का विचार आया और उसने देश भ्रमण की योजना बनाई और घूमने निकल पड़ा। जब वह यात्रा से लौट कर अपने महल आया। उसने अपने मंत्रियों से पैरों में दर्द होने की शिकायत की। राजा का कहना था कि मार्ग में जो कंकड़ पत्थर थे वे मेरे पैरों में चुभ गए और इसके लिए कुछ इंतजाम करना चाहिए।

कुछ देर विचार करने के बाद उसने अपने सैनिकों व मंत्रियों को आदेश दिया कि देश की संपूर्ण सड़कें चमड़े से ढंक दी जाएं। राजा का ऐसा आदेश सुनकर सब सकते में आ गए। लेकिन किसी ने भी मना करने की हिम्मत नहीं दिखाई। यह तो निश्चित ही था कि इस काम के लिए बहुत सारे रुपए की जरूरत थी। लेकिन फिर भी किसी ने कुछ नहीं कहा। कुछ देर बाद राजा के एक बुद्घिमान मंत्री ने एक युक्ति निकाली। उसने राजा के पास जाकर डरते हुए कहा कि मैं आपको एक सुझाव देना चाहता हूँ। 

अगर आप इतने रुपयों को अनावश्यक रूप से बर्बाद न करना चाहें तो एक अच्छी तरकीब मेरे पास है। जिससे आपका काम भी हो जाएगा और अनावश्यक रुपयों की बर्बादी भी बच जाएगी। राजा आश्चर्यचकित था क्योंकि पहली बार किसी ने उसकी आज्ञा न मानने की बात कही थी। उसने कहा बताओ क्या सुझाव है। मंत्री ने कहा कि पूरे देश की सड़कों को चमड़े से ढंकने के बजाय आप चमड़े के एक टुकड़े का उपयोग कर अपने पैरों को ही क्यों नहीं ढंक लेते। राजा ने अचरज की दृष्टि से मंत्री को देखा और उसके सुझाव को मानते हुए अपने लिए जूता बनवाने का आदेश दे दिया।

यह कहानी हमें एक महत्वपूर्ण पाठ सिखाती है कि हमेशा ऐसे हल के बारे में सोचना चाहिए जो ज्यादा उपयोगी हो। जल्दबाजी में अप्रायोगिक हल सोचना बुद्धिमानी नहीं है। दूसरों के साथ बातचीत से भी अच्छे हल निकाले जा सकते हैं।